श्री साईं सच्चरित्र संदेश

"तुम्हें अपने शुभ अशुभ कर्मो का फल अवश्य ही भोगना चाहिए I यदि भोग अपूर्ण रह गया तो पुनजन्म धारण करना पड़ेगा, इसलिये मृत्यु से यह श्रेयस्कर है कि कुछ काल तक उन्हें सहन कर पूर्व जन्मों के कर्मों का भोग समाप्त कर सदेव के लिये मुक्त हो जाओ" I


"जो मुझे प्रेम से पुकारता है उसके सन्मुख मै अवलिम्ब प्रगट हो जाता हूँ" |

Thursday, October 27, 2011

How Shri Sai Leela Magazine Came Into Existence


रविवार, १,९१२ (लगभग)  में, श्री गोविंदराव दाभोलकर ( साई सत्चरित्र  के लेखक जो  हेमाडपंत के नाम से लोकप्रिय है.)  साई सत्चरित्र  के कुछ अध्याय को पूरा करने के बाद मेरे पास आये. उनमें से मैं दो अध्याय मुझे इतने पसंद थे   कि मैंने उनसे अनुरोध किया कि उन्हें प्रकाशित किया जाये . इसके अलावा, हमें यकीन नहीं था  कि लोगों को केवल एक पुस्तक में संकलित साई बाबा की सभी लीला पसंद आयेगी . इसके अलावा अगर सब लीला  एक साथ प्रकाशित करते , तो मुद्रण ( प्रिंटिंग ) की लागत बहुत अधिक होगी  इसलिए, यह निर्णय लिया गया है कि शुरुआत में, एक मासिक पत्रिका जारी की  जानी चाहिए.श्री दाभोलकर ने इस विषय पर श्री हरि सीताराम दीक्षित की सलाह ली. इस तरह  छह महीने बीत चुके थे  और साई लीला के काम में कोई भी प्रगति नहीं थी . लेकिन हम निराश नहीं थे. एक दिन, श्री दीक्षित और श्री दाभोलकर मेरे घर आये  साईबाबा की लीलाओ को   प्रकाशित करने   के सन्दर्भ  में चर्चा करने . दूसरी और  से भी सोचे तो जो भी  अनुभव हमें  साई बाबा के पवित्र चरणों  से प्राप्त हुए वो मिथ्या  नहीं थे. बाबा की  लीला  प्रकाशित करने की सोच उनके भक्तो के लिए आश्चर्यजनक हो, लेकिन वास्तव में यह बोल  पाठकों के दिलों की गहरायिओं  को छु  लेंगे और  उनमे   आत्मविश्वास को जागृत करेंगे  . इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमने  इस मामले में आगे कदम बढाने  का फैसला किया और इस तरह के एक मासिक पत्रिका के रूप में साई बाबा की लीला प्रकाशित कर दीं.
पहले ९६०  प्रतियां इतनी  लोकप्रिय हुई  कि  और १०००  प्रतियां छपवाई गयी . अब साई बाबा के मीठे अनुभवों और लीलाए   प्रकाशित कि गयी थी . जब तक श्री दीक्षित जीवित थे , वह उनकी  तरफ से अनुभवों की  व्यक्तिगत रूप से पुष्टि करने के बाद ही उन्हें  प्रकाशित किया करते थे . लेकिन उनकी मृत्यु के बाद अब पत्रिका के प्रकाशन में देरी होने लगी हैं.  श्री दाभोलकर की मृत्यु के बाद काम एक साल पीछे चल रहा था
इन सभी कारणों से , साई लीला की सदस्यता  ९६०  से घटकर  ४००  तक हो गयी थी . पत्रिका की पूरी जिम्मेदारी अब मेरे बूढ़े  कंधों पर थी  मैं प्रसिद्धि से दूर रहना चाहता था और मुझे इन सब से दूर रहकर काम करने की आदत थी. सतर साल की उम्र में भी मुझे मेरे परिवार के खर्च को पूरा करने के लिए काम करना पड़ रहा था, साईं लीला और इसके अलावा शिर्डी साईबाबा संस्थान के कोषाध्यक्ष का काम मुझे दिया गया था. मैं साईंबाबा का आभारी हूँ की उनकी कृपा से सारा काम आसानी से हो रहा था. ये साईबाबा की असीम कृपा के फलस्वरूप ही मुज जैसे गरीब और अज्ञानी व्यक्ति को स्वीकार किया गया है. आज मेरे विस्तार से लिखने के पीछे का कारण यह है की साईलीला के पाठको की गणना अब २६० तक पहुच गयी हे जो की शुरआत के मुकाबले में बहुत ही कम है. इसलिए मेरा पाठको से अनुरोध है की हर घर में साईलील पत्रिका की सदस्यता हो.स्रोत: गुजराती पत्रिका "द्वारकामाई" से अनुवादित.

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